सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व, आरक्षण और साहूजी महाराज और डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर का योगदान

जब ब्राह्मणों द्वारा शूद्रों का निरन्तर शोषण किया जाता था और उनके साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता था तब ऐसी स्थिति से शूद्रों को मुक्ति दिलाने के लिये सर्वप्रथम कोल्हापुर के राजा छत्रपति शाहू जी महाराज ने 26 जुलाई 1902 को अपने राज्य मे ब्राह्मणों व सवर्ण जातियों को छोड़कर शेष सभी जातियों के लिये 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू की.

जब विधानमण्डलों मे आरक्षण की वकालत की गई तब पंडित बाल गंगाधर तिलक ने इसका यह कहकर विरोध किया कि क्या तेली, तमोली, कुंभटो को संसद मे जाकर हल चलाना है? जिस पर ब्राह्मणों द्वारा पंडित बाल गंगाधर तिलक को लोकमान्य की उपाधि प्रदान की गई. मोहन दास करमचन्द गाँधी ने हर तरह के आरक्षण का साम्प्रदायिकता के नाम पर विरोध किया इसलिए देश के बहुजनों के लिए जरूरी है कि वह सांप्रदायिकता के नाम पर मूर्ख बनने से बचें. पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आरक्षण के लिए कहा कि इससे दोयम दर्जे का राष्ट्र बनता है.

1942 में डॉ आंबेडकर जब पहली बार लेबर मिनिस्टर बने तब उन्होने सम्पूर्ण भारत मे 8 प्रतिशत आरक्षण लागू किया. 

आजाद भारत में भी उन्होने जब संवैधानिक रूप से आरक्षण का प्रावधान करना चाहा तो उनका बहुत विरोध किया गया और कहा गया कि आरक्षण की वजह से प्रशासनिक क्षमता मे कमी आयेगी. 

इस पर डॉ. आम्बेडकर ने जवाब दिया कि कार्यक्षम सरकार से प्रतिनिधि सरकार हमेशा बेहतर होती है. 

उन्होंने कहा कि आप बुद्धिमान हो सकते हैं, आप कार्यक्षम हो सकते हैं, यह सही है; लेकिन आप ईमानदार हो सकते हैं इस बात पर मुझे शक है. मान भी लिया जाए कि आप ईमानदार भी हो सकते हैं लेकिन आप मेरे प्रतिनिधि नहीं हो सकते. हमारा प्रतिनिधि केवल हममें से होगा. दूसरा कोई और नहीं हो सकता. 

लोकतंत्र क्या है? लोकतंत्र कुछ और नही बल्कि प्रतिनिधि व्यवस्था है. बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर ने आरक्षण का विरोध करने वालों को चुनौती दी कि यदि आप लोकतंत्र को मानते हैं तो आप प्रतिनिधित्व को नकार नहीं सकते और अगर प्रतिनिधित्व को नकारते हैं, तो आप लोकतंत्र को नही मानते. इस प्रकार डॉ. आम्बेडकर की दलीलों से आरक्षण का विरोध करने वालों को आरक्षण का विरोध करना मुश्किल हो गया.

जहाँ तक ओ.बी.सी. आरक्षण की बात है तो यह भी डॉ. आम्बेडकर आजादी से पूर्व ही देना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस ने उन्हे ऐसा करने नही दिया, फिर भी डॉ. आम्बेडकर ने अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण हेतु संविधान में अनुच्छेद 340 का प्रावधान किया. 

आजादी के बाद डॉ. आम्बेडकर ने कांग्रेस से अनुच्छेद 340 को लागू कर कमीशन गठित करने का प्रस्ताव रखा जिसे कांग्रेस ने नही माना. मजबूर होकर उन्होने विधि मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. बढ़ते दबाव से मजबूर होकर कांग्रेस को काका कालेलकर आयोग का गठन करना पड़ा. 

1953 में अपनी रिपोर्ट मे आयोग ने ओ.बी.सी. की लगभग 2000 जातियों को चिन्हित कर ओ.बी.सी. आरक्षण की सिफारिश की जिस पर नेहरू ने काका कालेलकर को संसद के केन्द्रीय कक्ष मे बुलाकर डाँटा और उनसे अपनी ही रिपोर्ट के विरूद्ध 31 पेज का पत्र लिखवाया. 

यह पहला और शायद अंतिम उदाहरण था जब अध्यक्ष अपनी ही रिपोर्ट को नकार रहा था. 

उक्त पत्र को आधार बनाकर नेहरू ने काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट पर बहस करने से इन्कार कर दिया. 

1954 में नेहरू ने सभी मुख्यमंत्रियों को गुप्त पत्र लिखकर निर्देश दिया कि आरक्षण पर अमल नही किया जाए क्योंकि इससे दोयम दर्जे के राष्ट्र का निर्माण होगा. इस षड्‌यन्त्र का भांडाफोड़ 1977 मे जनता पार्टी की सरकार के गृहमंत्री चौधरी चरणसिंह ने किया क्योकि वे नेहरू के विरोधी थे तथा इस पत्र को फाइल से निकालकर सार्वजनिक कर दिया.

इसलिए यह कहना कि डॉ. आंबेडकर ने ओबीसी के लिए कुछ नहीं किया, धूर्तता के सिवाय कुछ नहीं है.

Title in English: Social Justice, Representation, Reservation and role of Sahuji Maharaj and Dr. BR Ambedkar

साभार विभा सिंह 
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Anil Kumar Assistant Professor for Sociology, Faculty of Law, Raffles University

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