यह लेख मुलायम सिंह यादव और उनके सहयोगी अबू आजमी के हाल के बयान के सन्दर्भ में कविता कृष्णपल्लवी द्वारा लिखा गया है, लेकिन, यह बाकि के कई नेताओं पर लागु होता है. वस्तुतः यह विश्लेषण पुरे पितृसत्तात्मक समाज पर लागु होता है. - अनिल कुमार
बलात्कारियों के प्रति हमदर्दी दिखलाने वाला मुलायम सिंह वाला बयान (''लड़के हैं, गलती हो जाती है!'') पिछले दिनों काफी चर्चा में रहा। फिर अपनी मर्जी से किसी पुरुष से सम्बन्ध बनाने वाली स्त्रियों को भला बुरा कहते हुए उन्हीं की पार्टी के अबू आजमी ने भी बयान दे डाला कि बलात्कारी के साथ बलात्कार की शिकार स्त्री को भी दण्ड दिया जाना चाहिए।
अबू आजमी इस्लाम और शरीयत के हवाले देकर सपा के मुस्लिम वोट बैंक को पुख्ता कर लेना चाहते थे, लेकिन जहाँ तक मुलायम सिंह का ताल्लुक है, उनकी राजनीतिक अवस्थिति हमेशा से सुसंगत रूप से नारी-विरोधी रही है। यही मुलायम सिंह हैं जिन्होंने स्त्री आरक्षण का विरोध करते हुए कहा था कि औरतें राजनीति में आगे आयेंगी तो लड़के पीछे से सीटी बजायेंगे।
यह स्त्री विरोधी सोच दरअसल मुलायम सिंह की व्यक्तिगत सनक नहीं है। यह उनकी राजनीति के वर्ग चरित्र की ही एक अभिव्यक्ति है।
मुलायम सिंह भले ही अपने को लोहिया का शिष्य बताते हों, पर उनकी पार्टी मुख्यत: धनी किसानों और कुलकों का प्रतिनिधित्व करती है और गाँवों में उनका सामाजिक आधार भी मुख्यत: धनी और खुशहाल मालिक किसानों के बीच है।
किसान राजनीति का वह आन्दोलनात्मक दौर बीत चुका है जब छोटे मँझोले मालिक किसान भी इसमें शामिल थे।
अब बढ़ते ध्रुवीकरण और विभेदीकरण के साथ उनका भ्रम टूट गया है और सपा तथा कुलकों फार्मरों का प्रतिनिधित्व करने वाली देश की सभी क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ क्षेत्रीय छोटे पूँजीपतियों के साथ इजारेदार पूँजीपतियों के कुछ घरानों को भी भरपूर लाभ पहुँचाकर उनका विश्वास जीतने की कोशिश करती रही हैं।
अनिल अम्बानी और तरह-तरह के काले धन्धों और वित्तीय घपलों-घोटालों में लिप्त सहारा ग्रुप जैसे घरानों से मुलायम सिंह के रिश्ते सभी जानते हैं।
अमर सिंह तो चले गये, पर फिल्म उद्योग और वित्तीय जगत के तमाम काले धन वालों से रब्त-जब्त की जो राह मुलायम सिंह की पार्टी को दिखा गये, उस राह पर चलने में सपा महारत हासिल कर चुकी है।
लेकिन मुख्यत: सपा अभी भी बड़े मालिक किसानों की पार्टी है और उसका सामाजिक आधार भी बड़े-मँझोले मालिक किसानों के बीच ही है। मालिक किसानों का यह वर्ग अपनी प्रकृति से घोर जनवाद विरोधी और निरंकुश होता है।
स्त्री-उत्पीड़न और पुरुष स्वामित्व की सबसे बर्बर घटनाएँ इसी ग्रामीण तबके में देखने को मिलती है।
अन्तरजातीय प्रेम और विवाहों की सबसे बर्बर सजाओं की खबरें इन्हीं ग्रामीण तबकों से आती हैं।
जाति के आधार पर यदि बात करें तो जाट, यादव, कुर्मी, कोइरी, लोध, रेड्डी, कम्मा आदि जातियाँ अन्तरजातीय विवाहों और स्त्रियों की आजादी के मामले में उन सवर्ण जातियों के मुकाबले ज्यादा कट्टर और दकियानूस हैं, जिनका एक अच्छा-खासा हिस्सा शहरी मध्यवर्ग हो जाने के कारण आधुनिकता और बुर्जुआ जनवादी मूल्यों के (अतिसीमित ही सही) प्रभाव में आ गया है।
गाँवों में दलितों पर बर्बर अत्याचार की सर्वाधिक घटनाएँ भी मध्य जातियों के इन्हीं धनी मालिक किसानों द्वारा अंजाम दी जा रही है।
वर्ग चेतना की कमी के कारण, मध्य जातियों के जो छोटे किसान हैं, वे भी सजातीय धनी किसानों के साथ जातिगत आधार पर लामबंद हो जाते हैं और इसके चलते सपा, रालोद, इनेलोद, अकाली दल, तेदेपा, राजद जैसी क्षेत्रीय पार्टियों की चुनावी गोट लाल होती रहती है। यही नहीं, मालिक किसानों में अपना वोट बैंक सुरक्षित रखने के लिए राष्ट्रीय बुर्जुआ पार्टियों के नेता भी मध्ययुगीन बर्बरताओं का तुष्टीकरण करते रहते हैं। इन पार्टियों के भीतर भी धनी किसानों के 'दबाव समूह' सक्रिय रहते हैं।
दलितों और स्त्रियों पर सर्वाधिक बर्बर अत्याचार करने वाले खाप पंचायतों का पक्ष केवल चौटाला और अजीत सिंह ही नहीं, बल्कि भूपिन्दर हुड्डा और सुरजेवाला भी लेते हैं और केजरीवाल और योगेन्द्र यादव (सामाजिक अध्येता!!) भी उन्हें 'सांस्कृतिक संगठन' बतलाते हैं।
वर्ग चेतना की कमी के कारण, मध्य जातियों के जो छोटे किसान हैं, वे भी सजातीय धनी किसानों के साथ जातिगत आधार पर लामबंद हो जाते हैं और इसके चलते सपा, रालोद, इनेलोद, अकाली दल, तेदेपा, राजद जैसी क्षेत्रीय पार्टियों की चुनावी गोट लाल होती रहती है। यही नहीं, मालिक किसानों में अपना वोट बैंक सुरक्षित रखने के लिए राष्ट्रीय बुर्जुआ पार्टियों के नेता भी मध्ययुगीन बर्बरताओं का तुष्टीकरण करते रहते हैं। इन पार्टियों के भीतर भी धनी किसानों के 'दबाव समूह' सक्रिय रहते हैं।
दलितों और स्त्रियों पर सर्वाधिक बर्बर अत्याचार करने वाले खाप पंचायतों का पक्ष केवल चौटाला और अजीत सिंह ही नहीं, बल्कि भूपिन्दर हुड्डा और सुरजेवाला भी लेते हैं और केजरीवाल और योगेन्द्र यादव (सामाजिक अध्येता!!) भी उन्हें 'सांस्कृतिक संगठन' बतलाते हैं।
स्त्रियों के बारे में शरद यादव भी मुलायम सिंह से मिलते-जुलते ही विचार रखते हैं।
नवउदारवाद का दौर बुर्जुआ वर्ग के सभी हिस्सों के बीच आम सहमति की नीतियों का दौर है। सबसे अधिक आम सहमति इस बात पर है कि रहे-सहे जनवाद को भी संकुचित करके और रस्मी बनाकर समाज के पहले से ही दबे-कुचले लोगों को और अधिक संस्थाबद्ध रूप से बेबस लाचार बना दिया जाये ताकि उनकी श्रम शक्ति ज्यादा से ज्यादा सस्ती दरों पर निचोड़ी जा सके।
इस आम नीति को लागू करने के लिए जो माहौल बनाया जा रहा है, जाहिरा तौर पर, उसमें सर्वाधिक बर्बर शोषण-उत्पीड़न के शिकार वर्गीय सन्दर्भों में अनौपचारिक मजदूर होंगे, जातिगत संदर्भो में दलित (जिनका बहुलांश शहरी-देहाती सर्वहारा है) होंगे और जेण्डर के सन्दर्भों में स्त्रियाँ होंगी।
इसी स्थिति की सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति मुलायम सिंह और अबू आजमी जैसों के बयानों के सामने आती रहती है।
गाँवों के बढ़ते पूँजीवादीकरण और वित्तीय पूँजी की बढ़ती पैठ के साथ ही धनी किसानों के घोर निरंकुशतावादी, दकियानूस तबकों के भीतर भाजपा की फासिस्ट हिन्दुत्ववादी राजनीति की भी पैठ बढ़ी है।
गाँवों के बढ़ते पूँजीवादीकरण और वित्तीय पूँजी की बढ़ती पैठ के साथ ही धनी किसानों के घोर निरंकुशतावादी, दकियानूस तबकों के भीतर भाजपा की फासिस्ट हिन्दुत्ववादी राजनीति की भी पैठ बढ़ी है।
उग्र हिन्दुत्व के नये लठैत बनकर मध्य जातियों के मालिक किसान सामने आये हैं और अपने इस नये सामाजिक आधार को पुख्ता करने के लिए भाजपा ने पिछड़ी जाति के कार्ड को भी सफलतापूर्वक खेला है।
इससे चिन्तित मुलायम सिंह, अजीत सिंह, चौटाला, लालू यादव आदि ने अपने जातिगत किसानी सामाजिक आधार को मजबूत करने के लिए और अधिक कट्टर जातिवादी तेवर अपनाने शुरू कर दिये हैं।
दरअसल, धर्म की राजनीति और जाति की राजनीति ऊपरी तौर पर एक दूसरे से टकराते हुए भी एक दूसरे को बल देती है। सामाजिक ताने-बाने में ये दोनों एक दूसरे से गुँथी-बुनी हैं।
बुनियादी मुद्दों को दृष्टिओझल करके, वर्गीय चेतना को कुन्द करके और गैर मुद्दों को मुद्दा बनाकर जन एकजुटता को तोड़कर दोनों ही बुर्जुआ वर्ग और बुर्जुआ व्यवस्था की समान रूप से सेवा करती हैं। चूँकि बहुसंख्यावादी फासीवाद धार्मिक कट्टरपंथ के आधार पर ही खड़ा हो सकता है इसलिए भाजपा गठबंधन बुर्जुआ वर्ग की निगाहों में एक राष्ट्रीय विकल्प हो सकता है।
भारतीय समाज में जातियों का ताना-बाना ऐसा है कि जाति की राजनीति के आधार पर अपना सामाजिक आधार और वोट बैंक बनाने वाली बड़े मालिक किसानों और क्षेत्रीय पूँजीपतियों की कोई भी पार्टी राष्ट्रीय विकल्प नहीं बन सकती, भले ही कुछ इजारेदार पूँजीपति घरानों की भी उसे मदद हासिल हो। ऐसी क्षेत्रीय पार्टियाँ यू.पी.ए. या एन.डी.ए. जैसे किसी गठबंधन की छुटभैया पार्टनर ही हो सकती हैं।
नवउदारवाद के दौर में, मुख्यत: धनी किसानों और क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग की इन क्षेत्रीय पार्टियों से इजारेदार बुर्जुआ वर्ग को कोई विशेष परहेज भी नहीं है। इसका कारण यह है कि गाँव के कुलकों और छोटे बुर्जुआ वर्ग के साथ इजारेदार बड़े बुर्जुआ वर्ग के रिश्ते 'सेटल' हो चुके हैं। अब इनके बीच आपसी हितों को लेकर थोड़ी सौदेबाजी और थोड़ा मोलतोल ही होता है और यही गठबंधनों का बुनियादी आधार होता है।
इस पूरे खेल में संसदीय जड़वामन वामपंथी पार्टियों की स्थिति एकदम भाँड़ों और विदूषकों की होकर रह गयी है। साम्प्रदायिक फासीवाद को रोकने के लिए मेहनतक़श जनता की लामबंदी पर भरोसा करने के बजाय कभी वे नवउदारवादी नीतियों को धुँआधार लागू करने वाले यू.पी.ए. गठबंधन की सरकार को समर्थन देते हैं, कभी उसी के समर्थन से सरकार चलाने लगते हैं तो कभी 'सेक्युलर फ्रण्ट' या 'तीसरे मोर्चे' में ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सेज सजा लेते हैं, जो पहले भाजपा गठबंधन में शामिल रह चुकी होती है और आगे कभी भी छिटककर उससे जा चिपकने के लिए तैयार रहती हैं।
नवउदारवाद के दौर में, मुख्यत: धनी किसानों और क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग की इन क्षेत्रीय पार्टियों से इजारेदार बुर्जुआ वर्ग को कोई विशेष परहेज भी नहीं है। इसका कारण यह है कि गाँव के कुलकों और छोटे बुर्जुआ वर्ग के साथ इजारेदार बड़े बुर्जुआ वर्ग के रिश्ते 'सेटल' हो चुके हैं। अब इनके बीच आपसी हितों को लेकर थोड़ी सौदेबाजी और थोड़ा मोलतोल ही होता है और यही गठबंधनों का बुनियादी आधार होता है।
इस पूरे खेल में संसदीय जड़वामन वामपंथी पार्टियों की स्थिति एकदम भाँड़ों और विदूषकों की होकर रह गयी है। साम्प्रदायिक फासीवाद को रोकने के लिए मेहनतक़श जनता की लामबंदी पर भरोसा करने के बजाय कभी वे नवउदारवादी नीतियों को धुँआधार लागू करने वाले यू.पी.ए. गठबंधन की सरकार को समर्थन देते हैं, कभी उसी के समर्थन से सरकार चलाने लगते हैं तो कभी 'सेक्युलर फ्रण्ट' या 'तीसरे मोर्चे' में ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सेज सजा लेते हैं, जो पहले भाजपा गठबंधन में शामिल रह चुकी होती है और आगे कभी भी छिटककर उससे जा चिपकने के लिए तैयार रहती हैं।
बरसों भाजपा के सहयोगी रह चुका जद(यू.) अचानक इन वाम दलों के लिए ''सेक्युलर'' हो जाता है। ''सेक्युलर'' तेदेपा इनसे अचानक बेवफाई करके भाजपा के साथ भाग जाती है। ''सेक्युलर'' पासवान अचानक मोदी भक्त हो जाते हैं। जयललिता इन संसदीय वामपंथियों से बातचीत तोड़कर सहसा भाजपा गठबंधन के लिए दरवाजे खोल देती हैं।
मुलायम सिंह की समस्या यह है कि अपने मुस्लिय-यादव वोट बैंक और बसपा से प्रतिस्पर्धा के समीकरण के चलते उन्हें भाजपा विरोधी सेक्युलर तेवर बनाये रखना है। साम्प्रदायिक तनाव का माहौल बना रहे, यह भाजपा के साथ ही सपा की भी जरूरत है।
बसपा एक ऐसी बुर्जुआ पार्टी है जो दलित जातियों से उभरे धनी तबकों (नौकरशाहों, कारोबारियों) के मजबूत समर्थन और दलित जातियों में व्यापक सामाजिक आधार के बूते खड़ी है।
कम्युनिस्ट आन्दोलन के पतन के बाद उत्पीडि़त गरीब दलितों की जातिगत भावनाओं को उभाड़कर इसने अपना मजबूत आधार बनाया है।
मालिक किसानों के उत्पीड़न के चलते बसपा के आधार को और अधिक मजबूती मिलती है। गाँव के गरीबों की वर्गीय लामबंदी बढ़ते ही यह पार्टी अपनी सारी ताकत खो देगी।
अपनी वोट बैंक के ताकत के आधार पर यह पार्टी सपा और अन्य दलों से छिटके नेताओं और स्थानीय गुण्डों-मवालियों की भी शरणस्थली बनती रहती है और सपा से असंतुष्ट मुस्लिम आबादी के वोटबैंक में भी सेंध लगाती रहती है। यह एक नितान्त अवसरवादी पार्टी है, जिसके लिए सुसंगत नीतियों का कोई मतलब नहीं है। बुर्जुआ वर्ग का विश्वास जीतने के लिए यह किसी हद तक जा सकती है और चुनावी जोड़तोड में किसी भी गठबंधन का हिस्सा बन सकती है। लेकिन ऐसी पार्टी का इस्तेमाल बुर्जुआ वर्ग बटखरे के रूप में भले ही करे, उसपर अपना मुख्य दाँव कभी नहीं लगायेगा।
सपा, रालोद, अकाली दल, इनेलोद, तेदेपा आदि जितनी भी क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ ऐसी हैं, जिनका मुख्य समर्थन आधार गाँवों के मालिक किसानों में है और सहायक समर्थन आधार क्षेत्रीय छोटे पूँजीपतियों में है, वे अपनी प्रकृति से जनवाद विरोधी हैं।
सपा, रालोद, अकाली दल, इनेलोद, तेदेपा आदि जितनी भी क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ ऐसी हैं, जिनका मुख्य समर्थन आधार गाँवों के मालिक किसानों में है और सहायक समर्थन आधार क्षेत्रीय छोटे पूँजीपतियों में है, वे अपनी प्रकृति से जनवाद विरोधी हैं।
उनका बुर्जुआ जनवाद राष्ट्रीय स्तर की बुर्जुआ पार्टियों से भी अधिक सीमित-संकुचित है। इन पार्टियों को यदि 'क्वासी फासिस्ट' कहा जाये तो गलत नहीं होगा। हर ऐसी पार्टी अपनी प्रकृति से स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी और मज़दूर विरोधी होगी, यह स्वाभाविक है।
मुलायम सिंह की जब बात हो रही हो तो रामपुर तिराहा कांड को कैसे भूला जा सकता है, जिसमें उत्तराखण्ड के आन्दोलनकारियों पर न केवल बर्बर अत्याचार हुए, बल्कि सैकड़ों औरतों को बलात्कार का शिकार बनाया गया।
मुलायम सिंह की जब बात हो रही हो तो रामपुर तिराहा कांड को कैसे भूला जा सकता है, जिसमें उत्तराखण्ड के आन्दोलनकारियों पर न केवल बर्बर अत्याचार हुए, बल्कि सैकड़ों औरतों को बलात्कार का शिकार बनाया गया।
मुलायम सिंह ने एक बार भी उस पाशविकता के लिए अफसोस नहीं जाहिर किया। और फिर लखनऊ गेस्ट हाउस काण्ड में सपाई गुण्डों के कारनामों को कोई कैसे भूल सकता है!
राजा भइया, अमर मणि त्रिपाठी, मुख्तार अंसारी, डी.पी.यादव जैसे उत्तर प्रदेश के अधिकांश कुख्यात माफिया कभी न कभी सपा में रहे हैं या अभी भी हैं। बलात्कार और स्त्री उत्पीड़न के सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश में सपा नेताओं पर ही दर्ज रहे हैं।
मुलायम सिंह को बलात्कारियों के पक्ष में दिये गये अपने बयान के लिए कभी भी अफसोस प्रकट करने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि उनके इस बयान से मालिक किसानों के उनके उस वोटबैंक का तुष्टीकरण ही हुआ है जो अपनी वर्ग संस्कृति से नितांत निरंकुश और स्त्री विरोधी होता है।
मुलायम सिंह को बलात्कारियों के पक्ष में दिये गये अपने बयान के लिए कभी भी अफसोस प्रकट करने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि उनके इस बयान से मालिक किसानों के उनके उस वोटबैंक का तुष्टीकरण ही हुआ है जो अपनी वर्ग संस्कृति से नितांत निरंकुश और स्त्री विरोधी होता है।
अबू आजमी ने भी इस्लाम के हवाले देते हुए घोर स्त्री विरोधी बयान देकर कट्टरपंथी मुस्लिम वोटबैंक के तुष्टीकरण की ही कोशिश की है।
अब यह एक अलग बात है कि आम मुस्लिम आबादी ऐसी कट्टरपंथी नहीं है कि बलात्कारी के साथ पीडि़ता को भी दंडित करने की बात उसके गले के नीचे उतर जाये।
लेकिन संघ परिवार के कट्टरपंथी ऊपर से ''विकास'' का नारा देते हुए, जमीनी स्तर पर जिस तरह से धार्मिक ध्रुवीकरण कर रहे हैं, उसके चलते अबू आजमी के बयान का यदि फायदा नहीं तो नुकसान भी नहीं होगा, यह बात सपा के मुखिया अच्छी तरह समझते हैं। दिलचस्प बात यह है कि मुलायम सिंह के घोर मर्दवादी बयान की किसी भी शीर्ष संसदीय वामपंथी नेता ने भर्त्सना नहीं की। आखिर भावी सेक्युलर फ्रण्ट के संभावित सहयोगी जो ठहरे! छि:! त्थू!!
Title in English:
Barbarous or Uncivilized Politics of Mulayam Singh Yadav and Abu Azami by Kavita Krishnpallavi
Source:
Source:
https://www.facebook.com/notes/kavita-krishnapallavi/656667774388767
Date: 16 April 2014 at 01:05 on her Facebook
Anil Kumar, PhD
Assistant Professor
Raffles University
Anil Kumar | Student of Life World
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