जनसंख्या, महामारी और सामाजिक संकट: एक समाजशास्त्रीय चिंतन, संदर्भ कोरोना वायरस कोविड-19


लेखक: घनश्याम कुशवाहा, Ghanshyam Kushwaha, Assistant Professor, Sociology. Pt. D.D.U.Govt. Girls’ Degree College Sewapuri, Varanasi, Uttar Pradesh. Facebook ID: https://www.facebook.com/ghanshyam.kushwaha.92


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  • कोरोना वायरस और कोविड-19 के वर्तमान सामाजिक संकट और महामारी पर समजशास्त्रीय चिंतन और विश्लेषण कर रहें हैं घनश्याम कुशवाहा। उन्होंने कोरोना वायरस और कोविड-19 महामारी का विश्लेषण महामारी के इतिहास और समाजशास्त्र के संदर्भ में कीया है।

    प्रोफेसर मार्शल मैक्लुहान की ‘ग्लोबल विलेज’ (वैश्विक गाँव) शब्द की अवधारणा एक ऐसे संगठन को दर्शाती है जहाँ बहुत से देश अपनी संस्कृति और सभ्यता से ऊपर उठकर एकरूप होने के लिए आ मिले हों. वैश्वीकरण की एक अनिवार्य योग्यता के रूप में इसे अपनाना प्रगति के सूचक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में अगर इस गाँव का एक कोना किसी संक्रामक बीमारी से ग्रसित होता है तो इससे पुरे गाँव का प्रभावित होना स्वाभाविक है.

    आज पूरी दुनिया वैश्विक महामारी (कोरोना) की चपेट में है. चीन, इटली, स्पेन, अमेरिका के बाद अब भारत और अन्य एशियाई देश भी इससे अछूते नहीं रहे. चीन से उपजी समस्या ने अब तक लाखों लोगों को अपने कब्जे में कर लिया है. आज जब इंसान अपनी क्षमताओं के उच्च शिखर पर आसीन हो चुका है तब जायज है कि उसका इस्तेमाल इसकी रोकथाम में करेगा. हम यह बात भली भांति जानते हैं कि विश्व की बढ़ती आबादी हमारी हरित उपग्रह यानी पृथ्वी पर अतिरिक्त भार के रूप में परिलक्षित हो रही है.

    वर्तमान समय में विश्व की कुल जनसंख्या 7.7 बिलियन है. आंकड़ों के अनुसार दुनिया की आबादी को 1 बिलियन तक पहुंचने में दो लाख वर्ष का समय लगा और 7 अरब तक पहुंचने के लिए केवल 200 वर्ष का समय लगा. जनगणना 2011 के अनुसार भारत की कुल आबादी 121 करोड़ है. जनसंख्या नीति 2011 के अनुसार भारत की जनसंख्या वर्ष 2045 में स्थिर होगी. अर्थात जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि शून्य होगी. परन्तु एक नए अनुमान के मुताबिक भारत की जनसंख्या जहां 2045 में स्थिर होने वाली थी अब यह समय बढ़कर वर्ष 2070 हो गई है.  ऐसा माना जा रहा है कि समय रहते यदि जलवायु परिवर्तन और बढ़ते प्रदूषण से निपटने का तंत्र विकसित नहीं किया गया तो भविष्य में इसके भयावह परिणाम भुगतने होंगें. चूँकि दशकीय जनसँख्या का आंकलन हमें वर्ष 1881 के बाद से ही मिलना प्रारम्भ हो गया था.  जिससे जनसँख्या में वृद्धि या कमी के साथ ही जनांकिकीय समस्यायों की गणना भी आसान हुई और विद्वानों का ध्यान भी इस तरफ गया . भारत निश्चित रूप से जनांकिकीय लाभांश प्राप्त करने में सफल हुआ है लेकिन माल्थस का अनुमान सदैव गलत नहीं हो सकता कि किसी भी देश की बेतहाशा बढ़ती आबादी उसके खतरनाक संकेतों की तरफ इशारा करती है.

    चूँकि यह समस्या (बढ़ती आबादी) मानव जनित है तो मानव ने इसे एक समस्या के रूप में न लेकर इसे ‘मानव संसाधन’ की संज्ञा दे दी है . मानव की पृथ्वी पर बढ़ती छाप जिसे हम ‘पारिस्थितिकी पदचिह्न’ का नाम देते हैं, पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र पर मानवीय मांग का एक मापक है. इसका प्रयोग करते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर प्रत्येक व्यक्ति एक निश्चित जीवनशैली का अनुशरण करे तो मानवता की सहायता के लिये पृथ्वी के कितने हिस्से की ज़रूरत होगी। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान वैश्विक जनसंख्या के लिए तीन पृथ्वी की आवश्यकता है. बढ़ती आबादी, अंधाधुंध नगरीकरण और मानव के अंतहीन स्वार्थ के चलते पर्यावरण और भी दूषित हो चला है जो आज पनपी तमाम बीमारियों का कारण है. यह कोरोना महामारी भी उसी प्रदूषण का नतीजा है. जब किसी रोग का प्रकोप उसकी सामान्य प्रकृति की अपेक्षा बहुत अधिक होता है तो उसे महामारी (epidemic) कहते हैं. महामारी किसी एक स्थान, क्षेत्र या जनसंख्या के भू-भाग पर सीमित होती है. यदि कोई बीमारी दूसरे देशों और दूसरे महाद्वीपों में भी फ़ैल जाए तो उसे पैनडेमिक (pandemic) कहते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अब कोरोना वायरस को पैनडेमिक यानी महामारी घोषित कर दिया है. संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कोरोना वायरस को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की सबसे बड़ी चुनौती बताया है. भारत  में अब तक फैले महामारी के इतिहास के संक्षिप्त विवरण को इस प्रकार देख सकते हैं-

    1915-1926: इंसेफेलाइटिस लेटार्गिका
    1918-1920: स्पेनिश फ्लू (Spanish Flu)
    1961-1975:  हैजा महामारी (Cholera pandemic)
    1968-1969: फ्लू महामारी (Flu Pandemic)
    1974:  चेचक महामारी (Smallpox Epidemic)
    1994:  सूरत में प्लेग (Plague in Surat)
    2002-2004: सार्स
    2006: डेंगू और चिकनगुनिया का प्रकोप (Dengue and Chikungunya Outbreak)
    2009: गुजरात हेपेटाइटिस का प्रकोप (Gujarat Hepatitis Outbreak)
    2014 – 2015: ओडिशा में पीलिया का प्रकोप (Jaundice Outbreak,Odisha)
    2014-2015: स्वाइन फ्लू का प्रकोप (Swine flu outbreak)
    2017: एन्सेफलाइटिस का प्रकोप (Encephalitis outbreak)
    2018: निपाह वायरस का प्रकोप (Nipah Virus outbreak)

    2019: कोरोनावायरस (Coronavirus): कोरोना वायरस रोग (COVID-19): एक नयी बीमारी जो 2019 में चीन के वुहान शहर में शुरू हुई. अमेरिका के सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीएस) के अनुसार, कोरोना वायरस जानवरों से मनुष्यों तक पहुंच जाता है. कोरोनो वायरस, सार्स वायरस की तरह है. इसके संक्रमण से बुखार, जुकाम, सांस लेने में तकलीफ, नाक बहना और गले में खराश एवं न्यूमोनिया जैसी समस्याएं हो जाती हैं. विश्व में अब तक इससे एक लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है. यह संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है.

    थॉमस राबर्ट माल्थस ने अपने जनसंख्या सम्बन्धी सिद्धांत में जनसंख्या के प्राकृतिक नियंत्रण की बात कही है जिसमें प्रकृति अपने तरीके से जैसे- बाढ़, अकाल और तमाम तरह की बीमारियों इत्यादि के माध्यम से इस पर रोक लगाती है. चूँकि प्रत्येक देश और समाज की अपनी कुछ अलग भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिस्थिति और संरचनाएं होती हैं जिसके कारण यह महामारी एक सापेक्षिक बहस का विषय बन गया है. यूरोप में जहां जनसँख्या की कमी महसूस की जाती है वहीं चीन और भारत जैसे एशियाई देशों में इसकी अधिकता पर चिंता व्यक्त की जाती है. यह भी महसूस किया जाता है कि ऐसे तमाम कारक हैं जो जनसंख्या की वृद्धि में सहायक रहे हैं. अगर हम भारत की बात करें तो इसकी सामाजिक और सांस्कृतिक बहुलता के साथ बहुत सारे राजनीतिक आयाम भी जुड़े हुए हैं. देखा जाय तो एक ओर जहाँ विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों के सहअस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो जाता है तो दूसरी तरफ शासन करने वाले प्रशासकों की राजनीतिक उदासीनता भी इसका कारण बनती है. जिन देशों में ऐसे प्रश्न समस्या के रूप में नहीं हैं तो निश्चित ही वहाँ शिक्षा और आर्थिक सम्पन्नता का बोलबाला है.

    गरीबी और अशिक्षा एक दूसरे के लिए अभिशाप तो हैं ही इसके साथ इन दोनों का आपसी मिलन एक गरीब और जनाधिक्य आबादी के लिए चिंता का कारण बनता है. आज हम इस महामारी के आपातकालीन   स्थिति से गुजर रहें हैं और अपने ही घरों में कैद होकर इस अदृश्य बीमारी (कोरोना वायरस) से लड़ भी रहे हैं. साथ ही इस बीमारी से बचाव हेतु ‘सामाजिक दूरी’ अर्थात ‘सोशल डिस्टेन्सिंग’ की बात की जा रही है. देखा जाय तो सामाजिक दूरी को एक टूल्स के रूप में प्रसिद्द समाजशास्त्री इमोरी बोगार्ड्स ने इजात किया था. जिसमें लोगों की इच्छाओं (जुड़ाव/भेदभाव) को सामाजिक संबंधों (‘एक धार्मिक संप्रदाय का दूसरे धार्मिक संप्रदाय से’, ‘एक वर्ग का दूसरे वर्ग की दूरी से’) के आधार स्केल पर मापने की बात की गयी थी. कोरोना महामारी की संक्रामकता के चलते इसे एक निश्चित भेदभाव की जरुरत के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. अतः इसे ‘फिजिकल डिस्टेन्सिंग’ अर्थात ‘भौतिक दूरी’ कहना ज्यादा उचित होगा. हालांकि ‘भौतिक दूरी’ हो या ‘सामाजिक दूरी’ यह एक जाति या समुदाय की दूसरे जाति या समुदाय के प्रति घृणा और नकारात्मकता को प्रदर्शित करता है. इसको भारतीय जाति के आवश्यक तत्व के रूप में व्याप्त छुआछूत, खान-पान, हुक्का-पानी (उच्च जाति की निम्न जाति से एक दूरी) और ग्रामीण घरों की बसावट में देखा जा सकता है. शुचिता-अशुचिता पर आधारित जाति व्यवस्था की इस बसावट में हरिजन और अछूत जातियों के घर हमेशा दक्षिण दिशा में स्थित होते हैं.

    संदिग्ध या इस बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए क्वारंटीन’ (Quarantine) की व्यवस्था की गई है.  क्वारंटीन’ (Quarantine) लैटिन मूल का शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘चालीस’। पुराने समय में जिन जहाजों में किसी यात्री के रोगी होने अथवा जहाज पर लदे माल में रोग प्रसारक कीटाणु होने का संदेह होता था तो उस जहाज को बंदरगाह से दूर चालीस दिन ठहरना पड़ता था. ग्रेट ब्रिटेन में प्लेग की रोक-थाम के लिए प्रचलित यह व्यवस्था किसी तरह के रोग के संक्रमण की आशंका से युक्त मनुष्यों, पशुओं और स्थानों को एक-दूसरों से अलग रखने के लिए किया गया. जबकि क्वारंटीन का यह काल अब रोग विशेष के रोकने के लिये आवश्यक समय के अनुसार निर्धारित किया जाता है.

    अगर हम इस महामारी से उपजे भारतीय सामाजिक व्यवस्था की परिस्थिति का अवलोकन करें तो पाते हैं कि इस समय सभी एक सामान्य सी संस्कृति का अनुपालन करने को विवश हैं.  जबकि हमें यह अच्छी तरह ज्ञात है कि भारत जैसे विषमता वाले देश में सभी वर्गों की स्थितियां एक जैसी नहीं है. आर्थिक विन्यासीकरण के स्तर पर यह देश उच्च, निम्न और मध्यम श्रेणी में विभक्त है जिसमें एक बहुत ही बड़ी आबादी निम्न श्रेणी की है, जो अपनी जीविका के लिए प्रत्यक्ष रूप से दूसरों अर्थात मध्यम और उच्च वर्ग पर निर्भर है. अब तक की सरकारें देश में आर्थिक और सामाजिक विषमता को दूर करने का कोई समाधान नहीं निकाल पाई हैं. देखा जाय तो ‘सामाजिक दूरी/भौतिक दूरी की अभिकल्पना’ पर संचालित जीवन, उनके जीवन-यापन की प्रवृत्ति को और दुरूह बना रहा है.  ऐसे में जब उच्च और कुछ हद तक मध्यम वर्ग को केवल महामारी से बचने की चिंता है तो वहीं निम्न वर्गों के पास महामारी और भुखमरी दोनों से बचने का संकट. कामकाज पूरी तरह ठप्प हो जाने और सड़कों पर निकलने की मनाही ने उनके जीवन संघर्ष को और अधिक बढ़ा दिया है.

    दूसरी तरफ अपने-अपने घरों में कैद लोग ‘स्वयं के प्रति अलगाव’ की ज़िन्दगी जीने को विवश हैं. अलगाव उत्पन्न होने के परिणाम स्वरुप व्यक्ति पूर्ण रूप से न तो राजनीतिक भागीदारी कर पाता है, न ही स्वतंत्र रूप से सोच पाता है. व्यक्ति की बाधक स्वतंत्रता उसके सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक विकास को क्षीण करती है. दूसरी तरफ पूंजीवादी व्यवस्था के क्रम में इसके पोषक शक्तियों की राजनीतिक विचारधारा, इस अलगाववाद का, भरपूर फायदा उठाती हैं. इस अवस्था में व्यक्ति अपनी  प्रकृति से, अपने समाज से, यहाँ तक कि वह अपने आप से पराया हो जाता है. यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि इस समय देश में बेरोजगारी अपने चरम पर है. वित्त वर्ष 2017-18 में रोजगार के लिए तैयार प्रत्येक 100 व्यक्ति में से 6.1 व्यक्ति बेरोजगार रहे. वर्ष 2019 में जारी आंकड़ों के मुताबिक बेरोजगारी का यह आंकड़ा 45 वर्षों में सबसे ज्यादा है तथा पूरे देश में पुरूषों की बेरोजगारी दर 6.2% जबकि महिलाओं के मामले में 5.7% रही. ऐसी स्थिति की बावजूद उससे निपटने के लिए सिवाय लॉक डाउन और ‘भौतिक/सामाजिक दूरी’ के सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं है, निम्न वर्गों (गरीबों) को केवल यह कहकर फुसलाया जा रहा है कि उनकी सुविधाओं का ध्यान रखा जायेगा. बेरोजगारी के इस दुश्चक्र में ‘कोरोना महामारी’ ने गरीबों के सामने पहाड़ जैसी समस्या उत्पन्न कर दी है. अब तक यह देखा गया है कि कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित विकसित देश ही हुए हैं, जहां शहरीकरण ज्यादा है. यहां एक बात ध्यान देने वाली है कि प्रभावित लोगों और होने वाली मौतों में उम्रदराज (60 वर्ष के ऊपर) लोगों की संख्या ज्यादा है. चूँकि विकसित देश बढ़ती उम्र की जनसंख्या के भार से चिंतित है, भारत थोड़ी राहत की सांस ले सकता है. लेकिन ऐसी स्थिति भारत के भविष्य के लिए भी  चिंता का कारण हो सकती है जहां स्वास्थ्य पर खर्च विकसित देशों की अपेक्षा बहुत ही कम है. वर्तमान में भारत अपनी कुल जीडीपी का मात्र 1.4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है जबकि वैश्विक स्तर पर इसे 6 प्रतिशत माना गया है. यह जानकर और भी आश्चर्य होता है कि अपनी नई स्वास्थ्य नीति 2017 के अनुसार भारत 2025 तक स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 2.5 प्रतिशत तक खर्च करने की कोशिश करेगा.

    सामाजिक अलगाव के साथ-साथ पारिवारिक स्वास्थ्य और व्यापारिक सम्बन्ध भी बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है. देश के तमाम हिस्सों से आती ख़बरें विचलित करने वाली हैं. लोग जहां भी हैं, जिस हालात में हैं उन्हें सुनने वाला कोई नहीं है. यह महामारी आने वाले दिनों में एक बहुस्तरीय समस्या को जन्म देनेवाला साबित होगा जो सामाजिक बहिष्करण, कलंक (नस्लीय टिप्पणी जैसे चिंकी, चीनी इत्यादि), विस्थापन, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, शोषण, ऋणग्रस्तता, छुआछुत इत्यादी कुव्यवास्थाओं को जन्म देगी.

    भारत जैसे देश में जरूरतें बहुत अधिक हैं और उसकी अपेक्षा सुधार काफी कम हुआ है. एक तरफ देश में कुपोषण अपने उच्चतम शिखर पर आसीन है. यूनिसेफ 2019 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है, जबकि संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्य के अनुसार जिसमें भारत भी सम्मिलित है, दुनिया को 2030 तक भुखमरी से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया गया है. यह स्थिति भारत को और भी खतरनाक ज़ोन में स्थापित करती है.  भारत सरकार के राष्ट्रीय पोषण मिशन (National Nutrition Mission- NNM), जिसका नाम बदलकर ‘पोषण अभियान’ कर दिया गया है, का लक्ष्य स्टंटिंग (कुपोषण की एक माप जिसे आयु के अनुरूप छोटे कद के रूप में परिभाषित किया गया है) में प्रतिवर्ष 2 प्रतिशत की कमी के साथ वर्ष 2022 तक आबादी में स्टंटिंग के शिकार बच्चों का अनुपात 25 प्रतिशत तक नीचे लाना है. इस सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी भारत को अपनी वर्तमान दर से दोगुनी गति से प्रयास करना होगा, जो कि कठिन दिखाई पड़ता है.

    अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेजे की किताब ‘भारत और उसके विरोधाभास’ इस बात पर जोर देती है कि विगत कुछ वर्षों में आर्थिक प्रगति करने के बावजूद भी ग्रामीण और मजदूर वर्ग की आय लगभग एक ही रही है. अतः हम कह सकते है कि वंचित लोगों को इसके लाभों के पुनर्वितरण के बिना आर्थिक विकास व्यर्थ है. भारत में अमीर और गरीब के बीच असमानता आज भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है. महामारी के इस दौर में पूरे भारत के लॉकडाउन (एक आपातकालीन प्रोटोकॉल, जिसमें लोगों की आवाजाही पर रोक लगाने के लिए सरकार द्वारा यह प्रतिबंध लगाया जाता है. इसके तहत जिस शहर को लॉकडाउन किया जाता है उस शहर में कोई भी व्यक्ति घर से बाहर नहीं निकल सकता है. वह स्वयं को घर में कैद कर लेता है. मात्र अति आवश्यक कार्य के लिए लोग घर से बाहर निकल सकते हैं.) के इस दौर में अपने ही देश के अंदर यह कड़वा विरोधाभास दिखाई पड़ता है. शहरों से बेघर गरीब प्रवासियों को अपने घरों तक पहुँचने में सैकड़ों मील पैदल चलना पड़ रहा है वहीं सुविधाभोगी आर्थिक रूप से संपन्न अमीर वर्ग को सरकार हवाई यात्रा द्वारा देश ला रही है जबकि यह ज्ञात है कि यह बीमारी भारत में बाहर से आयातित है.

    महामारी की इस भयावहता के बीच मदद के लिए सिर्फ सरकारी तंत्र का आगे आना और उसका  इस्तेमाल भी इस बात पर जोर देने लगा है कि निजीकरण सिर्फ स्वार्थगत हित को साधता है न कि सामूहिक हित को. ऐसे में जब सभी निजी संस्थागत हॉस्पिटल अपनी दुकान बंद कर स्वयं को लॉक डाउन कर लिया है, वैसे में आज हमारे डाक्टर, नर्स एवं समस्त स्वास्थ्यकर्मी, पुलिस, सेना के जवान से लेकर अन्य सरकारी तंत्र  अपने जान की बाज़ी लगाकर देश-सेवा में तत्पर हैं. यहाँ तक कि सरकारी स्कूल, कॉलेज ही नही बल्कि रेल के डिब्बे भी आइसोलेशन वार्ड में तब्दील हो गए हैं, निजीकरण को सही ठहराने वालों के लिए भी यह सोचने के लिए विवश करने करने वाला समय है. आज जरुरत है सभी संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण की जो जरुरत और आपदा के समय हमेशा तत्पर रहती हैं. विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनकल्याण हेतु चुनाव से लेकर जनगणना तथा ऐसी महामारी के समय भी सरकारी तंत्र की उपयोगिता सर्वथा साबित हो जाती है. 

    अंततः वर्त्तमान स्थिति को देखते हुए एक बात तो साफ़ है कि जब तक हर नागरिक को चिकित्सा सुविधा नहीं मिलेगी तब तक हम इस तरह की बीमारियों से निजात नहीं पा सकेंगे. देश की मुलभूत आवश्यकताएं और प्राथमिकताएं तय होनी चाहिए. देश भी तरक्की के रास्ते पर तभी बढ़ सकेगा जब हमारी आने वाली पीढ़ियां स्वस्थ्य होंगी. कुपोषण की समस्या की जड़ मूल रूप से गरीबी ही  है. गरीबी की मार झेल रहे करोड़ों परिवार किन हालात में हैं, इसकी तस्वीर चौंकाने वाली है. सभी स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, संस्थान बंद हैं . सड़के बंद हैं, दुकान बंद हैं, रोजगार पूरी तरह ठप्प है. बेघर लोगों की तादाद तेजी से बढ़ रही है. आज कामगार वर्ग असहाय और मजबूर है. उसके समक्ष अभी अपने पेट भरने की समस्या है. ऐसे में समस्या का समाधान ज्यादा जटिल नजर आता है. ऐसी समस्याओं से निजात पाने के लिए सिर्फ योजनाएं बनाना पर्याप्त नहीं होता, बल्कि इन योजनाओं को लागू करने में गंभीर प्रयासों की भी जरूरत होती है. हम अभी तक गरीबी, कुपोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे क्षेत्रों में अगर कुछ हासिल नहीं कर पाए हैं तो जाहिर है, यह हमारे तंत्र की विफलता का सूचक है. अतः सबसे पहले उस तंत्र को भी दुरुस्त करना होगा जिस पर ऐसे वृहद और बेहद बुनियादी लक्ष्यों को हासिल करने की  जिम्मेदारी है.

    • सन्दर्भ सूची:
    • कपिला, इंडियन इकॉनमी, परफोर्मेस एंड पॉलिसीज, 2016.
    • अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेजे, भारत और उसके विरोधाभास, 2019
    • https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A7
    • https://navbharattimes.indiatimes.com/business/business-news/new-labour-force-survey-confirms-unemployment-rate-at-6-1-pc-in-2017-18/articleshow/69603561.cms
    • राम आहूजा, सामाजिक अनुसंधान, रावत पब्लिकेशन, 2004.
    • नवभारत टाइम्स, 1 अप्रैल, 2020.

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    Image Detail: Image of Novel Coronavirus SARS-CoV-2 Causing COVID19 Credit National Institute of Allergy and Infectious Diseases (NIAID), Feb 13 2020, License under CC BY 2.0
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